धुलेंडी पर घूमेंगे गल और चलेंगे चूल

✎ दिलीप सिंह

मध्य प्रदेश के आदिवासी बाहुल्य झाबुआ, आलिराजपुर, धार, बड़वानी जैसे आदिवासी इलाकों में होली के पर्व के पूर्व से ही आदिवासीयों के तीज त्यौहार प्रारंभ हो जाते है। होली आदिवासीयों के लिये कई त्यौहारों को लेकर आती है। होली के पूर्व शिवरात्री से लगाकर तेरस तिथि तक आदिवासी पूरे एक माह तीज, ज्यौहार मनाते है। इस दौरान वे नाच, गान, वाद्य यंत्र बजाना, खाना, पिना करते है और अपनी मस्ती में रहते है। आदिवासीयों के इन पर्वो में शिवरात्री पर्व, गुलालिया हाट, भगोरिया हाट, गल, चूल, शीतला सप्तमी और गढ़ के त्यौहार प्रसिद्ध है। इन त्यौहारों के समाप्ती पर ही आदिवासी पुनः अपने काम काज में जुटता है। तब तक एक माह ये अपनी मौज मस्ती में रहते है और उन्मुक्त जीवन जीता है। साथ ही इस दौरान आदिवासी समाज में शादी-ब्याह का दौर भी चलता है।

भगोरिया हाट बाजारों में एक सप्ताह मौज मस्ती के बाद आदिवासी समाज होली के लिये व्रत रखते है। जिन्हे होली भूखिया कहते है, आदिवासी परिवार में जितने लोग रहते है, उतने नारियल लेकर होली जलने में उनके द्वारा उसमें होम किये जाते है। होली के दूसरे दिन अर्थात धुलेंडी पर दिन में रंग खेलने के बाद आदिवासी शाम को गल घूमते है और चूल भी चलते है।

गल देवरा - आदिवासी समाज में यह मान्यता है कि भगवान नृहसिंह ने जिस प्रकार से भक्त प्रहलात की रक्षा उसके पिता हिरण्याक्ष से कि थी उसी तरह से गल डेहरा जिसे की भगवान का स्वरूप मानकर पूजा की जाती है वे भी हमारी रक्षा करेगें। गल डेहरा घूमने वाले व्यक्ति मन्नत धारी होते है। दो तरह की मन्नते होती है एक तो स्त्री के लिये और दूसरी बिमारीयों से निजात पाने एवं आपदाओं से बचने के लिये। गल घूमने वाले व्यक्ती ने अगर स्त्री के लिये मन्नत ली है तो वह लाल वस्त्र पहनेगा और बिमारी या अन्य कारण से मन्नत ली है तो सफेद वस्त्र पहनेगा। मन्नत धारी अपने शरीर पर लाल व सफेद वस्त्रों को क्रास रूप से लपेट कर पहनता है तथा उसके गाल पर दो निशान (क्रास) काजल से बने होते है, शरीर पर हल्दी का लेप लगाया जाता है। तथा सिर पर पगडी, साफा बांधा जाता है, उसके हाथ में कांच और नारियल रहता है। नंगे पैर वह सात दिनों तक रहता है और सात भगोरिया में घूमता है।

धुलेंडी के दिन शाम को जब गांव के बहार एक लकड़ी का बीस से पच्चीस फिट उंचा मचान बना होता है जिस पर एक लंबी आड़ी डंडी बंधी होती है उस मचान के निचे पहले वह मन्नत धारी नारीयल फोड कर फिर उसे मचान पर चढ़ाकर उस आड़ी लकड़ी पर औंधे मुंह बाधां जाता है और फिर निचे बंधी रस्सी से उसे सात चक्कर गोल घूमाया जाता है। मन्नत पूरी होने पर गल के निचे बकरे की बली दी जाती है। बकरे का सिर बड़वा अर्थात पूजारी को दिया जाता है और धड़ परिजन ले जाते है, गल देवरा देखने वालों की भारी भीड़ जुटती है। झूल, चकरी लगते है खाने पिने की दुकाने सजती है और लोग गल घूमने का आंनन्द लेते है।

इसी तरह से धुलेंडी के दिन चूल भी चली जाती है जिसके तहत आदिवासी समाज में दहकते अंगारों पर चलने की परंपम्परा है। मन्नत धारी लोग इन जलते अंगारों पर एक पार से दूसरी पार जाकर अपनी मन्नत पूरा करते है। चूल के तहत जमीन में एक गहरी खाई खोदी जाती है जो कि दस से पन्द्रह फिट लंबी और तीन, चार फिट चौड़ी होती है जिसमें लकड़ी और अंगारे डालकर उसे तैयार किया जाता है। कुछ लोग चूल को ठंडा करते और कुछ जलती चूल पर चलते है, चूल चनले वालों को किसी प्रकार का नुकसान नहीं होता है।

होली से सात दिन बाद शीतला सप्तमी का त्यौहार, व्रत रखा जाता है। जबकि माता शीतला को ठंडा, बासी भोजन परोसा जाकर पूजा की जाती है। गांव के शीतला माता मंदिरों में सुबह से ही स्त्रियां बड़ी संख्या में माता का पूजन करने पहुंचती है। साथ में ही पुरूष वर्ग भी पहुंचता है। इन मंदिरों में भी काफी भीड रहती है, इस दिन होटलों में भट्टियां नहीं जलती है और घरों में खाना नहीं बनाया जाता। कई लोग चाय तक ठंडी ही पीते है। दिन भर शीतला माता का पूजन चलता है और शाम को आदिवासी युवक रायबुलियां बनकर ढोल मांदल की थाप नाचते गाते आते है और घरों से पापड, पूड़ी मांग कर ले जाते है। रायबुलियां आदिवासी युवक ही बनते है साथ में उनकी राई स्त्री भी होती है। ये एक हंसी, जोकर का पात्र होता है जेाकि बच्चों में काफी लोकप्रिय है।

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